प्लासी का युद्ध
वैसे तो अंग्रेजों ने भारत में कितने ही छिटपुट जंग लड़े लेकिन साल 1757 के प्लासी युद्ध ने भारत के लिए बहुत कुछ बदल कर रख दिया. हमारे देश पर अंग्रेजों की धमक बढ़ती चली गई और दूसरे शासकों की पकड़ ढीली होती चली गई. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच प्लासी की लड़ाई साल 1757 में 23 जून को लड़ी गई थी.
1. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को ये निर्णायक जीत कर्नल रॉबर्ट क्लाइव की अगुआई में मिली. 2. बंगाल के नदिया जिले में ये जंग गंगा नदी के किनारे प्लासी नामक जगह पर हुआ था. 3. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला 40,000 सैनिकों और 50 फ्रांसीसी तोपों के साथ लड़े. 4. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास 1000 अंग्रेज और 2,000 भारतीय सैनिक थे. 5. इस अहम युद्ध ने भारत में अंग्रेजों के राज की नींव रखी और फ्रांसीसियों की ताकत कम होती चली गई. 6. युद्ध के फौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी.
बंगाल का अधिग्रहण
अंग्रेजों द्वारा किया गया बंगाल का अधिग्रहण भारत में 18वी शताब्दी के उत्तरार्ध की ऐतिहासिक घटनाओं में प्रमुख है । केवल आठ वर्षों के अल्पकाल अथार्त 1757 से 1765 ई. के मध्य बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला, मीरजाफर तथा मीर कासिम अपनी संप्रभुता को कायम रखने में असफल सिद्ध हुए । परिणामस्वरुप, बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की संप्रभुता स्थापित हो गयी ।
बक्सर का युद्ध (1764ई.)- बक्सर जो बनारस के पूर्व में स्थित है, के मैदान में अवध के नवाब,मुगल सम्राट तथा मीरकासिम की संयुक्त सेना अक्टूंबर, 1764ई. को पहुँची।दूसरी ओर अंग्रेजी सेना हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में पहुँची। 23 अक्टूंबर,1764 ई. को निर्णायक बक्सर का युद्ध प्रारंभ हुआ।युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व ही अंग्रेजों ने अवध के नवाब की सेना से असद खां,साहूमल (रोहतास का सूबेदार) और जैनुल आब्दीन को धन का लालच देकर तोङ लिया। शीघ्र ही हैक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने बक्सर के युद्ध को जीत लिया। मीरकासिम का संयुक्त गठबंधन बक्सर के युद्ध में इसलिए पराजित हो गया क्योंकि उसने युद्ध के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की थी,शाहआलम गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिला था तथा भारतीय सेना में अनेक प्रकार के दोष अंतर्निहित थे। बक्सर के युद्ध का ऐतिहासिक दृष्टि से प्लासी के युद्ध से भी अधिक महत्व है क्योंकि इस युद्ध के परिणाम से तत्कालीन प्रमुख भारतीय शक्तियों की संयुक्त सेना के विरुद्ध अंग्रेजी सेना की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है।
बक्सर के युद्ध ने बंगाल,बिहार और उङीसा पर कंपनी का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर दिया, साथ ही अवध अंग्रेजों का कृपापात्र बन गया। पी.ई.राबर्ट्स ने बक्सर के युद्ध के बारे में कहा कि- प्लासी की अपेक्षा बक्सर को भारत में अंग्रेजी प्रभुता की जन्मभूमि मानना कहीं अधिक उपयुक्त हो । यदि बक्सर के युद्ध के परिणाम को देखा जाये तो कहा जा सकता है कि जहाँ प्लासी की विजय अंग्रेजों की कूटनीति का परिणाम थी, वहीं बक्सर की विजय को इतिहासकारों ने पूर्णतः सैनिक विजय बताया। प्लासी के युद्ध ने अंग्रेजों की प्रभुता बंगाल में स्थापित की परंतु बक्सर के युद्ध ने कंपनी को एक अखिल भारतीय शक्ति का रूप दे दिया। बक्सर के युद्ध में पराजित होने के बाद शाहआलम जहाँ पहले ही अंग्रेजों की शरण में आ गया था वहीं अवध के नवाब ने कुछ दिन तक अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक सहायता हेतु भटकने के बाद मई 1765 ई. में अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। 5 फरवरी, 1765 को मीरजाफर की मृत्यु के बाद कंपनी ने उसके पुत्र नज्मुद्दौला को अपने संरक्षण में बंगाल का नवाब बनाया।
मई, 1765 ई. में क्लाइव दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया, आते ही उसने शाहआलम और शुजाउद्दौला से संधि की।
12 अगस्त, 1765 ई. को क्लाइव ने मुगल बादशाह शाहआलम से इलाहाबाद की प्रथम संधि की। जिसकी शर्तें इस प्रकार थी-
मुगल बादशाह ने बंगाल,बिहार,उङीसा की दीवानी कंपनी को सौंप दी।
कंपनी ने अवध के नवाब से कङा और मानिकपुर छीनकर मुगल बादशाह को दे दिया।
एक फरमान द्वारा बादशाह शाहआलम ने नज्मुद्दौला को बंगाल का नवाब स्वीकार कर लिया।
कंपनी ने मुगल बादशाह को वार्षिक 26 लाख रुपये देना स्वीकार किया। इलाहाबाद की प्रथम संधि का सबसे बङा लाभ कंपनी को बंगाल,बिहार एवं उङीसा के वैधानिक अधिकार के रूप में मिला।
ब्रिटिश सत्ता का विस्तार अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनी सत्ता का विस्तार प्रमुख रूप से 1757 से 1758 के मध्य किया गया। इसके लिए उन्होंने दो तरह के रास्ते अपनाए। (1) पहला युद्ध द्वारा दूसरे राज्य पर विजय प्राप्त करके (2) दूसरा कूटनीतिक तरीकों से
कंपनी ने बंगाल, मैसूर, मराठा और सिक्ख जैसी शक्तियों को पराजित किया था। और उनको पराजित कर ब्रिटिश सत्ता के अधीन किया।
कूटनीतिक गतिविधियों में अंग्रेजों द्वारा प्रमुख रूप से तीन नीतियाँ अपनाई गयीं
(1) रिंग फेंस पालिसी
इस पॉलिसी का जन्मदाता वारेन हेस्टिंग्स था। बंगाल विजय के उपरांत भी अंग्रेज इतने सशक्त नहीं थे कि वह मुगल, मराठा या सिख सेना का सामना कर पाते। इसलिए उन्होंने घेर की नीति की नीति अपनाई और बंगाल में होने वाले आपने फायदे को सुरक्षित करने के लिए बंगाल का रक्षा दायित्व अपने हाथ में ले लिया।
वास्तव में वेलेजली द्वारा आरंभ की गई सहायक संधि इसी नीति का परिष्कृत रूप थी।
(2) सहायक संधि: यह नीति वेलेजली द्वारा आरंभ की गई यह रिंग फेंस नीति का ही परिष्कृत रूप था। इस संधि के अनुसार कंपनी राज्य को सुरक्षा का वचन देती और जिस राज्य से यह संध की जाती, उस राज्य का अपनी सेना रखने का अधिकार समाप्त हो जाता। साथ ही एक अंग्रेज अधिकारी 'रेजिडेंट' उस राज्य में नियुक्त कर दिया जाता। ब्रिटिश राज्य को अपनी सेना प्रदान करते, जिसका रखरखाव का दायित्व राज्य का होता। रेजीडेंट राज्य के विदेशियों से होने वाले व्यवहार को सुनिश्चित करता। राज्य स्वतंत्र रूप से किसी भी बाहरी राज्य से किसी भी प्रकार का कोई संबंध स्थापित नहीं कर सकता था।
इस प्रकार इन राज्यों की स्वतंत्रता समाप्त कर दी जाती तथा यह राज्य अंग्रेजी दया पर निर्भर हो जाते।
जिन राज्यों से सहायक संधि की गई, वह राज्य थे:
हैदराबाद (1798), मैसूर (1799), तंजीर (1799), अवध (1801), पेशवा (1801), बराड़ (1803), भोसले (1830), सिंधिया (1804)
(3) व्यपगत का सिद्धांत या विलय की नीति: इस नीति का प्रयोग लॉर्ड डलहौजी ने, 1840 से 1856 में, अपने कार्यकाल के दौरान किया। इस नीति के अनुसार यदि किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई वारिस/ उत्तराधिकारी नहीं है, तो ब्रिटिश कंपनी उस राज्य का अधिग्रहण कर लेगी।
डलहौजी के इस मनमाने सिद्धांत के आधार पर कई राज्यों की रियासतों को कंपनी द्वारा हड़प कर लिया गया।
जिन राज्यों के साथ विलय की नीति लागू की गई, वह थे:
सतारा (1840), जयपुर (1849), संबलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (1852), झांसी (1853), नागपुर (1854)
डलहौजी की इस नीति के कारण राज्यों तथा रियासतों में तीव्र असंतोष फैला तथा 1857 की क्रांति का प्रमुख कारण बना।
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